
सिकुड़ता गणतंत्र एवं बढ़ती संविधानिक साक्षरता की मांग
Updated: Feb 14, 2021
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी कविता " देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता " में लिखते हैं - यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो ? यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रहीं हों तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो? भारतीय गणतंत्र की 71 वीं वर्षी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की गूंज में मनाई जा रही है। संविधान बनने और एक गणतंत्र के रूप में अपने 71 वें बसंत में भारत अपने संविधानिक अस्तित्व को बनाये रखने की लड़ाई लड़ रहा है। यह कविता नागरिकों को उनकी नागरिकता बोध के लिए प्रश्न करने को प्रेरित करती है ।
नागरिक आज़ादी पर राज्य की पाबन्दी , संसदीय लोकतंत्र में विमर्श का घटता स्पेस , एवं बहुसंख्यक राज्य की तरह व्यवहार करती सत्ता , लोगों को सक्सेना की कविता की कल्पना को वास्तविकता से रूबरू कराती है । कोविड -19 ने दुनिया भर की व्यवस्थाओं की खामियों को उजागर किया है संसदीय लोकतंत्र में संसद की भूमिका पर उठते सवाल, सिमटता सुचना तंत्र, मूल सुविधाओं को तरसती जनाबादी, एवं चुने हुए प्रतिनिधियों की बेरुखी ने दुनिया भर के लोकतंत्र और नागरिकों के रिश्तों को पुनर्भाषित किया है। आशा और प्रत्याशा के बीच, दुनिया भर के सफल लोकतंत्रों की एक समानता पारदर्शिता एवं सुचना तक, नागरिको की पहुँच रही है। संविधानिक विद्वान माधव खोसला और मिलन वैष्णव हाल ही में आये अपने एक शोध पत्र में यह लिखते हैं- " हाल के संस्थागत परिवर्तन और नौकरशाही प्रथाओं, ने, प्रचलित संवैधानिक व्यवस्था के केंद्रीय सिद्धांतों को कम कर दिया है। भारत की नई संवैधानिकता के तीन प्रमुख विशेषताएं हैं: जातीय राज्य, निरकुंश राज्य और एकअपारदर्शी राज्य। बिना विधायी जांच के, संसद द्वारा बिल का पास होना- उदाहरण के तौर पर हाल ही में आये कृषि कानून, अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार , विद्वानों का जेल में बंद होना, सिकुड़ते गणतंत्र की निशानी है , जो संवैधानिक साक्षरता के लिए मार्ग प्रशश्त करती है ।
